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What is Dhinga Gavar ? The only Festival that goes on at midnight, Where women rule | मेला जो चलता है अर्धरात्रि में | आइये जानते हैं धींगा-गवर का इतिहास | History of Jodhpur

What is Dhinga Gavar ? The only Festival that goes on at midnight, Where women rule | मेला जो चलता है अर्धरात्रि में | आइये जानते हैं धींगा-गवर का इतिहास | History of Jodhpur
Saurabh Soni

महिलाओं की धींगा मस्ती से सरोबर इस त्योंहार का जोधपुर में अलग ही आनंद है. क्यों कि एकमात्र ऐसा मेला है आधी रात को शुरू होता है जिसमें महिलाओं की धमाचौकड़ी होती है. यह मेला जोधपुर के भीतरी शहर खांडा-फालसा, सुनारों की घाटी, कटला बाजार, खाप्टा आदि क्षत्रों में जमता है.

परन्तु जोधपुर के अलावा राजस्थान में एक और जगह भी ये त्योंहार मनाया जाता है और वो जगह है झीलों की नगरी उदयपुर. लगभग 18वीं शताब्दी में उदयपुर के तत्कालीन महाराजा राजसिंह की रानी, राठौड़ी रानी जो जोधपुर की राजकुमारी थी, ने धींगा गवर का मेला शुरू करवाया था. और इसके बाद अपने पीहर जोधपुर में भी इस मनोरंजक मेले की शुरुआत की. तब से यह परम्परागत तौर से हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. इसे महिला आजादी और सशक्तिकरण का त्यौंहार माना जाता है.

आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार भगवान शिव और माता पार्वती ने भील-भीलनी का भेष बनाकर एक-दूसरे से ठिठोली की थी. तब से यह घटना 16 दिवसीय धींगा-गणगौर के रूप में मनाया जाने लगा जो चैत्र शुक्ल तृतीया से वैशाख कृष्ण तृतीया तक मनाया जाता है. और इस पर्व में 16 की संख्या विशेष स्थान रखती है.

अर्थात इस त्यौहार में 16 महिलायें एक समूह में गवर का व्रत और पूजन करती है, 16 दिनों तक वे उपवास करती हैं और अपने हाथ में 16 गांठों वाला पवित्र सूत बांधती है जिसे 16वें दिन उतार कर और 16 गांठें खोलकर गवर की बाहं पर बाँध देती है. छोटी गणगौर में कुंवारी कन्यायें और सुहागिन महिलायें दोनों व्रत करती है परन्तु बड़ी गणगौर(धींगा गवर) का व्रत सुहागिन और विधवा महिलायें ही कर सकती है.

90-100 दशक पूर्व धींगा गवर के दर्शन पुरुष नहीं कर सकते थे इसके पीछे मान्यता थी की ऐसा करने से शीघ्र ही उस पुरुष की मृत्यु हो जाएगी. इसलिए गवर विसर्जन के समय तिजणियाँ गीत गाती हुई और हाथ में बेंत लेकर चलती थी ताकि उनके रास्ते में कोई पुरुष हो तो वह बेंत की फटकार से दूर चला जाये.

परन्तु कालांतर में जैसे हर त्यौंहार में परिवर्तन होते हैं वैसे ही यहाँ भी परिवर्तन हुए और पुरुषों ने भी इस मेले में हिस्सा लेना शुरू कर दिया. और मान्यता यह बन गयी कि जिस कुंवारे पुरुष को तिजणियों की बेंत पड़ जाती है उसका विवाह शीघ्र ही सुयोग्य कन्या से हो जायेगा. और इसी मान्यता के प्रभाव से इस मेले में मनचले लड़कों की खूब धमचक रहती है जो जानबूझकर बेंत खाने आते हैं.

इस मेले को मनोरंजक बनाने के लिए महिलायें अलग-अलग स्वांग रचती हैं और शहर की भीतरी गलियों में धूम मचाती और बेंत चलती हुई घुमती है. वर्तमान में भीतरी शहर के अलग अलग इलाकों में विभिन्न स्टेज-शो और अलग-अलग कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है. चूँकि मेला अर्धरात्रि में लगता है इसलिए मेले में सुरक्षा का भी पूरा इंतजाम किया जाता है और जगह-जगह पुलिस की व्यवस्था की जाती है. ताकि कोई अवांछनीय घटना न हो.

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Saurabh Soni

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