जोधपुर के लोक उत्सवों में शामिल है हास्य-विनोद से भरा एक अनूठा उत्सव जो फघड़ा-घुड़ला के नाम से पुरे मारवाड़ में प्रसिद्ध है. यह अनूठा पर्व कैसे शुरू हुआ और इसके पीछे कौनसी घटना जुड़ी है ? आज हम इसी के बारे में बात करने जा रहे हैं.
राजस्थान के सुप्रसिद्ध त्योंहारों में से एक है गणगौर उत्सव. गणगौर अर्थात माता पार्वती, जिन्होंने मनोवांछित वर(भगवान शिव) की प्राप्ति के लिए कठोर तप और साधना की थी. जिसके परिणाम-स्वरुप उन्होंने भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त किया. उस समय से यह त्योंहार के रूप में मनाया जाने लगा. कुंवारी कन्यायें मनोवांछित वर प्राप्ति के लिए और सुहागिनें अपने पति की दिर्गायु और अच्छे स्वास्थ्य की कामना हेतु प्रत्येक वर्ष चैत्र शुक्ल तृतीया को गणगौर-पूजन और व्रत करती हैं. गणगौर का यह पर्व चैत्र कृष्ण प्रथमा से शुरू होता है और 16 दिनों तक चलता है.
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गणगौर पर्व के साथ ही एक और उत्सव इसके साथ जुड़ गया था जिसे घुड़ला पर्व कहते है. घुड़ला पर्व की शुरुआत, मारवाड़ की एक घटना के अंत के साथ हुई.
ये घटना सन् 1490 के दशक की है जब जोधपुर में राव सातल का शासन था, उस समय मुगलों से युद्ध चलते रहते थे. एक बार अजमेर के सूबेदार मल्लू खां ने अपने सहायकों सिरिया खां और घुड़ले खां के साथ मेड़ता पर आक्रमण किया और एक गाँव में गणगौर-पूजन करती 140 कन्याओं और महिलाओं का अपहरण कर लिया. राव सातल को पता चलते ही वे मल्लू खां के पीछे सेना लेकर चल पड़े. मल्लू खां और सिरिया खां तो भाग निकले, लेकिन घुड़ले खां को उन्होंने पकड़ लिया और बाणों से बींध कर उसका सर धड़ से अलग कर दिया. फिर उन कैद की हुई कन्याओं और महिलाओं को छुड़ाकर घुड़ले खां का सर उन्हें सुपूर्द कर दिया.
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घुड़ले खां का सर लेकर, सभी तीजणियाँ नृत्य करती हुई और भजन-गीत गाती हुई पूरे गाँव में घर-घर घूमी थी ताकि सबको पता चले की जिसने नारी पर कू-दृष्टि डाली उसका कैसा अंजाम हुआ. तब से चैत्र कृष्ण अष्टमी से चैत्र शुक्ल तीज तक यह घुड़ला-उत्सव मनाया जाता है. एक छिद्र युक्त मटके को घुड़ले का स्वरुप मानकर उसमें दीप जलाकर तीजणियों द्वारा उसे घर-घर घुमाया जाता है फिर पारम्परिक गीत और भजन गाये जाते हैं. “ओ घुड़लो घूमेला जी घूमेला” ये गीत मुख्य रूप से गाया जाता है. चैत्र सुदी तीज को पवित्र जलाशय में परम्परागत तरीके से घुड़ला विसर्जित करके इस उत्सव का समापन किया जाता है.
समय के साथ-साथ इसका स्वरुप भी बदलता गया है. जब तीजणियों ने घुड़ला, पुरुषों को सौंप दिया. तब से फघड़ा-घुड़ला चलन शुरू हुआ. पिछले 50 सालों से जोधपुर के भीतरी शहर में रात्री के समय भोलावणी का मेला चलता है जिसमें एक पुरुष सोलह सृंगार करके, सुहागिन महिला का स्वांग रचकर घुड़ला स्वरुप मिट्टी का घड़ा सर पर रखकर भीतरी शहर में घूमता है. इसे ही कहते है फगड़ा-घुड़ला. वर्तमान में इसके लिए एक संस्था है जिसके सदस्य मिलकर तय करते है कि फघड़ा-घुड़ला के लिए किस पुरुष को चुना जाए. साथ ही इस मेले में विभिन्न प्रकार की झाँकियों समेत शोभायात्रा भी निकाली जाती है.
भारत में मनाये जाने वाले त्यौंहार सिर्फ धार्मिक मान्यताओं पर ही आधारित नहीं है बल्कि ये हमारे जीवन में अनमोल सीख का जरिया भी होते हैं. व्यस्त और कठिन समय में सुकून और ख़ुशी के कुछ पल मिल जाये तो जिन्दगी आराम से कट जाती है और ये त्योंहार हमारे जीवन में यही पल लेकर आते हैं. हमें समस्याओं और परेशानियों का सामना करने की हिम्मत देते है.
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