यूँ तो मारवाड़ शुरू से ही वीरों और राष्ट्रभक्तों की भूमि रहा है. न सिर्फ राजपरिवार बल्कि इनके स्वामिभक्त सदस्यों और कई अन्य लोगों ने भी इसकी आन, बान और शान की रक्षा की है और इसके अस्तित्व को बनाये रखने में अतुल्य बलिदान भी दिए हैं जो आज भी इतिहास में कहीं है तो कहीं गुमनाम भी है.
वह भूमि धन्य ही है जहाँ ऐसे वीर व्यक्तियों का जन्म होता है जो सत्य, धर्म, और प्रजा की रक्षार्थ अपना सर्वस्व अर्पित कर देते हैं. ऐसे ही वीर पुरुषों की श्रेणी में एक नाम आता है मारवाड़ के चिर-परिचित और यशश्वी महाराजा प्रतापसिंह जी का. जो कभी मारवाड़ की राजगद्दी पर नहीं बैठे परन्तु अपने जीते जी गद्दी पर विराजमान सभी शासकों का संरक्षण पूरी निष्ठा के साथ किया और राज्य के लिए कई ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण कार्य किये.
महाराजा प्रतापसिंह जी का जन्म 22 अक्टूबर 1845 में हुआ था और ये महाराजा तख्तसिंह के तीसरे पुत्र थे. ईडर(गुजरात) राज्य के राजा के निधन के बाद प्रतापसिंह जी वहां के महाराजा बने साथ ही वे ब्रिटिश भारतीय सेना के अधिकारी भी थे. वो स्वयं तो अधिक शिक्षित नहीं थे, लेकिन मारवाड़ में शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है. शिक्षा के अतिरिक्त वे एक बहुगुणी प्रतिभा से सम्पन्न व्यक्ति थे, जो राजनीति, आखेट, घुड़सवारी, निशानेबाजी और विदेश-यात्राओं में कुशल थे. मारवाड़ के इतिहास में अन्य शासकों की तुलना में सबसे अधिक विदेश यात्राएं करने वाले ये प्रथम शासक थे.
महाराजा प्रताप सिंह जी ने बचपन से ही अपने जीवन में कई उतार-चढाव का सामना किया था और हर परिस्थिति में स्वयं को योग्य बनाने का प्रयास किया. उनके इसी गुण और व्यक्तित्व ने मारवाड़ को एकसूत्र में पिरोये रखा था. उनका कुछ समय जयपुर के महाराजा राम सिंह के साथ भी बीता जिनसे इन्होंने जीवन के कई मत्वपूर्ण पहलुओं को समझा. पिता महाराज तख्तसिंह जी की मृत्यु के पश्चात जसवंत सिंह जी गद्दी पर विराजे और उस समय उनके प्रधानमंत्री फैज्जुलाह थे जिनके कार्यों से वह संतुष्ट नहीं थे अतः उन्होंने महाराजा प्रतापसिंह जी को शासन और सत्ता में सुधार करने हेतु जोधपुर आमंत्रित किया. तब प्रतापसिंह जी ईडर से अपना इस्तीफा देकर जल्द ही जोधपुर के लिए रवाना हो गये. जोधपुर पहुँचते ही जसवंतसिंह जी ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. अपने शासन काल में प्रतापसिंह जी जोधपुर के चार शासकों के संरक्षक और समर्थक रहे थे.
इस पद पर रहते हुए तथा विपरीत और विरोधी परिस्थितियों का सामना करते हुए उन्होंने मारवाड़ में फैली अव्यवस्थाओं में सुधार के साथ विरोधियों का दमन भी किया. मारवाड़ पर बढ़े हुए कर्ज को कुछ ही वर्षों में उतार दिया और नवीन तकनीकों के साथ मारवाड़ के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण और नवीन निर्माणकार्य भी करवाये. उन्होंने राजकोष विभाग, पुलिस विभाग, कानून व्यवस्था, अस्पताल, स्कूल, रेलवे आदि अनेक क्षेत्रों में सुधार के साथ-साथ जोधपुर का सौन्दर्यीकरण भी करवाया.
गाड़ी में नहीं होता था बैक गियर
हमेशा आगे बढ़ने में विश्वास रखने वाले सर प्रताप के बारे में कहा जाता है कि वे कोई भी नई कार खरीदते समय सबसे पहले उसका बैक गियर निकलवा देते थे। ताकि कभी पीछे नहीं चलना पड़े।
उनके निर्माण कार्यों में कचहरी भवन, शिप हाउस, पोलो मैदान आदि प्रमुख हैं. ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया से उनके घनिष्ट सम्बन्ध रहे थे. उनके युद्ध-कौशल, राजनीति और बहादुरी से प्रभावित होकर उन्हें वर्ष 1916 में कर्नल नियुक्त किया गया जिसके साथ ही उन्हें सर की उपाधि मिली, तब से वे सर प्रताप सिंह कहलाये. सर प्रतापसिंह जी द्वारा बनवाए गये कचहरी भवन के बाहर उनकी स्मृति में उनकी एक भव्य प्रतिमा स्थापित की गयी है.
न राज्य का मोह न कुछ पाने की लालसा बस अपने राज्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले सर प्रतापसिंह जी जीवन के अंतिम पड़ाव में जोधपुर रीजेंट के रूप में अपनी सेवाएं दी. एक संघर्षपूर्ण परन्तु गौरवशाली जीवन व्यतीत करते हुए 4 सितम्बर 1922 को जोधपुर में उनका निधन हुआ.
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